उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
तभी तिवारी कुछ बड़बड़ा उठा, भारती उठकर चली गई। आज अपूर्व का तन-मन भय और चिंता से अत्यंत विकल हो उठा था। मां को अपने पास देखने की अंधी आकुलता से उसके भीतर-ही-भीतर कुहरा घूमड़ने लगा था। यह बात अन्तर्यामी से छिपी नहीं रही। लेकिन भारती का हृदय अपमान की वेदना से तड़प उठा।
थोड़ी देर बाद लौटकर उसने देखा-अपूर्व किसी तरह फल काटने का काम समाप्त करके चुपचाप बैठा है। बोली, “बैठे हैं? खाया नहीं?”
“नहीं आपके लिए बैठा हूं।”
“क्यों?”
“आप नहीं खाएंगी?”
“नहीं। इच्छा होगी तो मेरे लिए अलग रखे हैं।”
अपूर्व ने फलों का थाल हाथ से कुछ आगे ठेलकर कहा, “क्या ऐसा कभी हो सकता है? आपने सारे दिन नहीं खाया, और....”
उसकी बात पूरी नहीं हुई थी कि अत्यंत सूखे दबे स्वर में उत्तर मिला, “आह! आप तो बहुत परेशान करते हैं, भूखे हैं तो खाइए। नहीं तो खिड़की से बाहर फेंक दीजिए।” यह कहकर वह कमरे से चली गई।
उसके चेहरे को अपूर्व ने देख लिया। उस चेहरे को वह फिर कभी नहीं भूल सका। आने के दिन से लेकर अब तक अनेक बार भेंट हुई थी। झगड़े में, मेल-जोल में, शत्रुता में, मित्रता में, सम्पत्ति और विपत्ति में-कितनी ही बार तो इस लड़की को देखा है। लेकिन उस दिन के देखने और आज के देखने में कोई समता नहीं है।
भारती चली गई। फलों का थाल उसी तरह पड़ा रहा। अपूर्व उसी तरह काठ की तरह अवाक् और निस्पंद बैठा रहा।
एकाध घंटे के बाद उसने कमरे में जाकर देखा, तिवारी के सिरहाने के पास चटाई बिछाए भारती अपनी बांह पर सिर टिकाए सो रही है।
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