उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
अब तो एक-एक शब्द ज़बानी याद है। आह तुमने कितनी सुन्दरता से मन की बात कही है।
"आता कैसे पास तुम्हारे?
पक्षी हूँ पर पंख नहीं हैं।
लहर हूँ मैं सागर तो नहीं हूँ।
मैं एक तारा, नभ तो नहीं हूँ।
राही हूँ पर मँजिल तो नहीं हूँ।
कैसे करता मैं मनमानी?
चाहा था मैं उड़-उड़ जाऊँ।
सागर की लहरें बन जाऊँ।
नभ को चूम प्रकाश फैलाऊँ-
राही की मँजिल बन जाऊँ।
पर जब देखा पंख कटे थे।
आह न निकली होंठ सिले थे।
आँख से आँसू कैसे बहे थे?
अपने ही तब रोदन सुने थे।
तुम थे दूर किसे बुलाता?
कैसे पास तुम्हारे आता?
हां मेरे प्राण तुमसे कोई गिला नहीं, कोई गिला नहीं।
सच कहती हूँ इन बहते हुए आँसुओं की सौगन्ध - सच कहती हूँ। फिर भी एक बात बार-बार मन में आती है कि तुम से पूछूं यह मजबूरी कैसी है? औऱ क्यों है?
इस क्यों का जवाब तुम नहीं दोगे, जानती हूँ।
फिर भी पूछती हूँ कि मुझे यह बात जाने बिना शान्ति मिलेगी नहीं। यह दुनियाँ और इसके रस्मों-रिवाजों को कुछ-कुछ मैं भी समझने लगी हूं।
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