उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
उस रोज किसी बात पर बडे़ जेठजी ने तुम्हारा अपमान किया था औऱ तुम चुपचाप बैठे हँसते रहे थे।
तब बहुत बातें हुई थी। इतने सारे मेहमान इकट्ठे हुए थे। उन्हीं के सामने घर भर में शोर मचा हुआ था औऱ तुमने सारे झगडे़ को न जाने कैसे इतनी खामोशी औऱ सरलता से निपटा लिया था।
उस रोज मैंने जाना था कि तुम कितने महान हो। मेरा सर गर्व से तन गया था। मेरा देवता एक साधारण पुरुष नहीं हैं। सहन-शीलता औऱ संयम से बना है।
उस दिन जब तुम मेरे पास आये थे तो यूं लगा था मैं तुम्हारे सीने से लगा हुआ एक नन्हा सा फूल हूँ। तुम कितने महान नज़र आये थे औऱ मैं स्वयं को कितना छोटा पा रही थी। मैंने आँखें बन्द कर लीं थीं औऱ तुम्हारे सीने पर चुपचाप सो गई थी।
लगा था दुनियाँ में मेरे लिए यही एक स्थान है जो सबसे सुरक्षित है। यही मेरी शक्ति है। जब तक ये हाथ मुझे थामे हैं दुनिया की कोई ताकत मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकती।
उस समय तुम्हें याद है, मैंने कह था, "स्वामी, मुझे डर लगता है। हर एक से डर लगता है। अपने-आपसे भी डर लगता है। केवल तुमसे नहीं लगता जब तुम पास होते हो तो कोई डर, कोई भय, कोई खौफ मीलों तक नहीं होता।"
तुम केवल हँस दिये थे।
मेरे गिर्द अपनी सुदृढ़ बाहें डाल दी थीं।
मेरे कानों में आहिस्ता से कहा था "मेरी पगली।"....
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