उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
परन्तु आज मेरे पास कोई बाहें नहीं है जो मुझे सहारा दें।
आज कोई नहीं जो मेरे कानों में सरगोशी करे।
कोई हँसी नहीं जो भय के इन पर्दो को चीर दे।
आज-आज चारों ओर से खौफ, डर और तूफानों ने मुझे घेर रखा है और तुम....तुम इस तरह दूर बैठे तमाशा देख रहे हो।
परन्तु नहीं, तुम परदेश में हो। खुद अकेले जाने किस तरह अपना समय बिता रहे होगे? तुम्हें कुछ बता कर तुम्हारी शान्ति को क्यों भंग करूँ?
केवल इतना ही जान लो कि आ सको तो एक आध दिन के लिए आ जाओ।
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मेरे स्वामी,
तुम नहीं आ सकते थे, न आये। न अभी आ सकते हो।
इसमें तुम्हारा क्या दोष? दोष तो मेरे भाग्य का है।
तुमने कहा था कि हमारा मिलन कई जन्मों से इसी तरह होता आया है। थोडा़ सा मिलना होता है फिर जुदाई हो जाती है। फिर मिलते हैं, फिर बिछुड़ते हैं। थोडा़ सा सुख औऱ फिर अनेक दुख। थोड़ी सी तृप्ति औऱ फिर विशाल अतृप्ति।
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