उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
परन्तु एक बात है, यूँ लगता है इस दुनियाँ में छल कपट बहुत है। और इश दुनियाँ में मेरा जैसी मूर्ख लड़कियों के लिए कोई स्थान नहीं है।
फिर भी कम से कम तुम इस बात का यकीन जानो कि मैं तुम्हारी इज्जत, तुम्हारी मर्यादा के लिए अपनी जान तक देने वाली लड़कियों में से हूं। औऱ बस...
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स्वामी,
तुमने तो इतनी सारी बातें एक साथ ही पूंछ ली, किस-किस का जवाब दूँ?
समय भी बहुत कम मिलता है। सारा दिन घर पर काम करना पड़ता है। रात ही को इस मन्दिर में आ पाती हूँ (हां, यह कमरा ही तो मेरा मन्दिर है, यहाँ तुम्हारी तस्वीरें हैं औऱ यादें हैं और जहाँ तुमने मेरी जैसी अनाथ लड़की को स्वीकार किया था।)
परन्तु इस मन्दिर में भी तो अब शान्ति नहीं मिलती।
देवता है नहीं। नहीं मधुर घंटियों की आवाज है नहीं। राधा की पाजेब अब यहां गूँजती नहीं। कृष्ण की बाँसुरी की लय के लिए दीवारें तरस गई हैं। न कोई गीत है न धड़कन। न स्वप्न के बोल हैं, न कल्पनाओं के रंग महल।....
बस विशाल दीवारें हैं।
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