उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
बस सूना मन्दिर है और एक बिरहिन है औऱ बिरहा के गीतों की प्रतिध्वनियां हैं और साँय-साँय करता सन्नाटा है।
कभी-कभी तो मैं इस मन्दिर में भी डर जाती हूँ।
औऱ तब आप ही आप एक सिसकी सुनाई देती हैं। रोना भी चाहती हूँ, रो नहीं पाती। सिसकियाँ उमड़ने के लिए बेताव है, परन्तु कलेजे में घुटी जा रही हैं और यदि कुछ होता भी है तो बस दो-चार आहें इस मन्दिर के सन्नाटे को कजलाती हैं।
देवता....देवता, क्यों रुठ गये हो?
मेरे विश्वास को क्यों इस तरह आज़मा रहे हो? मैं तो इतनी अनजान हूं और ये तूफान इतने तीव्र हैं, कैसे मुकाबला करूं?
अब तो साहस हार चुकी हूँ, सचमुच हार चुकी हूँ। किसको अपना रुदन सुनाऊँ?
कौन है अपना ?
नहीं.....नहीं, यह मैंने क्या कहा? तुम जो हो। मेरे सब कुछ तुम जो हो। मैं तो अपने पास तुम्हारी अमानत हूँ। तुम जो कहोगे वही करूँगी। हाँ। जिस हाल में रखोगे वैसे ही रहूँगी।
यह गिला नहीं हैं मेरे स्वामी।
मुझे तुम्हारी मजबूरियों का भी अब कुछ-कुछ आभास होने लगा है। मैं जान गई हूँ इस घर के नियम क्या हैं?
और यह सब जानने के बाद तुम्हें अब बुलाऊँगी भी नहीं।
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