उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
सब कुछ स्वयं सहन करूँगी। चुपचाप सहती रहूँगी। इसीलिए कि तुम्हारा रास्ता भंग न हो. इसीलिए कि तुम्हारी मंजिल औऱ कठिन न बने।
मुझे अब धीरे-धीरे सब पता लग गया है। तुमने तो कुछ बताया भी नहीं था. परन्तु मैं अब सब कुछ जान चुकी हूँ।
तुमने इस घर के नियमों के विपरीत चलने का प्रयास किया है। तुम अपने भविष्य को अपने-आप बनाने पर तुले हो। इस घर के मालिक ने तुम्हारे लिए जो रास्ता नियुक्त किया था, खामोशी से तुमने मुंह मोड़ कर, अपने लिये एक नया रास्ता बना लिया है।
तुम कुछ बनना चाहते हो। तुम कुछ और बनना चाहते हों। रुपये की इस रेल-पेल से तुम्हें कोई लगाव नहीं है। तुम अपने लिए कोई रास्ता ढूढ़ना चाहते हो। कोई औऱ रास्ता, जिस पर चल कर तुम्हें शान्ति मिले और तुम गर्व से गर्दन उठाये जीवन-पथ पर अपनी मर्जी से चलते जाओ-चलते जाओ।
इस दुनियाँ के यह लेन-देन और रुपयों की झंकार। तुम्हें इनमें कोई आकर्षण नहीं महसूस होता।
इसीलिए तुम इनके रास्तों से अपना मुंह मोडंकर किसी औऱ पगडण्डी पर मुड़ गये हो।
यह सब मैं जान चुकी हूँ। परन्तु तुम्हें यह लोग समझ नहीं पाते। इसीलिए सभी तुमसे नाराज रहते हैं।
बडे़ जेठ जी, मंझले जेठ जी रोज ही तो तुम्हारी बुराइयाँ करते हैं। पिता जी के कान भरते रहते हैं।
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