उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
कहते हैं तुमने खानदान का नाम डुबो दिया है। तुम सारे खान-दान के लिए शर्म का कारण हो। इतने अमीर खानदान से होते हुए भी तुम एक साधारण सी नौकरी करते हो। भला यह भी कोई काम है जो तुम करते हो। कलाकार हो? हूँ...... एक पत्रिका के साधारण से सम्पादक। कहानियाँ लिखते हो. कहानियाँ बेचते हो। भला यह भी कोई काम हुआ?
पिता जी समझते हैं कि तुमने उनकी आज्ञा का पालन न करके अपना जीवन नष्ट कर डाला है इसीलिए उनके दिल में अब तुम्हारे लिए घृणा ही घृणा ही भरती जा रही है।
माँ जी को तुम्हारे दूसरे भाई घेरे रहते हैं। और तुम्हारे लिए काँटे बोते रहते हैं।
कभी-कभी मैं स्वयं भी सोचती हूँ तुम्हारे घर में इतना पैसा है, हर रोज कितने हजारों रुपये आते हैं, तुम्हें किस बात की कमी थी? दूसरे भाइयों की तरह बेकार घूमकर, बेकार फजूल सा रोब झाड़कर पिता जी की हाँ में हाँ मिलाकर तुम भी तो रह सकते थे।
परन्तु अब मैंने समझ लिया है कि दौलत ही सब कुछ नहीं है।
मनुष्य का सबसे बडा़ सरमाया उसकी मानवता है जिसके लिए तुम प्रयत्नशील हो।
तुमने मुझे आज्ञा दी है कि अभी मुझे इसी घर में रहना होगा जब तक कि तुम्हारा भविष्य सुदृढ़ न हो जायेगा। हाँ-हाँ, मैं ऐसा ही करूँगी। मैं ऐसा करूँगी। मैं ऐसा अवश्य करूँगी। मैं अवश्य तुम्हारा साथ दूँगी। अवश्य साथ दूंगी।
इस रास्ते में मुसीबते बहुत हैं न। अगर तुम नहीं घबराते तो मैं क्यों घबराऊंगी? मैं कैसे घबरा सकती हूँ?
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