उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
सारा जीवन तुम्हें दुख देती आई। आज बिछोह का दुख ही क्या कम है कि तुम इस तरह मेरे भविष्य के बारे में चिंतित हो रही हो?
नहीं-नहीं दीदी डरो नहीं, कुछ भी न होगा।
रोओ नहीं। आज तो तुम अपने कर्त्तव्य से विमुख हो उठी हो. आज तो तुमने मुझे किसी को दान दे दिया है फिर अपने इस इरादे को इस तरह डगमगाने क्यों देती हो?
काश कोई मेरी दीदी को समझाये, दीदी को दिलासा दे।
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परन्तु कौन दिलासा दे?
सभी तो दुखी हैं। कल रात से अब तक, जब बारात इस द्वार पर आयी थी, उन सभी पर तूफान आ-आ कर बीत गये।
अब तो दिलों में एक भय सा है मुंह से बात तक नहीं निकलती। डरते हैं कि बनी बनाई बात कहीं बिगड़ जाये।
कितनी मुश्किल से वे लोग माने हैं।
वरना क्या कसर रह गई थी इस गरीब बेसहारा अनाथ लड़की की बारात वापस चली जाने में?
किस तरह जीजा जी ने अपनी पगडी़ उतार कर उस जालिम निर्दयी पुरुष के पैरों पर रख दी थी? वह पुरुष जिसका इतना ऊंचा घराना है। इतनी मर्यादा है, इतनी ऊंची नाक है।
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