उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
अब तक तो मैं उसके कुतूहल और प्रश्नमाला को भरसक बरदाश्त करता रहा। किन्तु न जाने क्यों पिछली बात मानो मुझे एकाएक असह्य हो उठी। मैं खीझकर रूखे स्वर में बोल उठा, “अच्छा, कौन हो तुम? तुम्हें जीवन में कहाँ देखा है, यह तो याद आता नहीं। मेरे सम्बन्ध में इतनी बातें तुम जानना ही क्यों चाहती हो और जानने से तुम्हें लाभ क्या है?”
बाईजी को गुस्सा न आया, वे हँसकर बोलीं, “लाभ-हानि ही क्या संसार में सब कुछ है? माया, ममता, प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं? मेरा नाम है प्यारी, किन्तु जब मेरा मुख देखकर भी न पहिचान सके, तब लड़कपन का नाम सुनकर भी मुझे कैसे पहिचान सकोगे? इसके सिवाय मैं तुम्हारे उस गाँव की लड़की भी तो नहीं हूँ।”
“अच्छा तुम्हारा घर कहाँ है?”
“नहीं, सो मैं नहीं बताऊँगी।”
“तो फिर, अपने बाप का नाम ही बताओ?”
बाईजी जीभ काटकर बोलीं, “वे स्वर्ग चले गये हैं-राम-राम, क्या उनका नाम इस मुँह से उच्चारण कर सकती हूँ?”
मैं अधीर हो उठा। बोला, “यदि नहीं कर सकतीं तो फिर मुझे तुमने पहिचाना किस तरह, यही बताओ? शायद यह बतलाने में कोई दोष न होगा।”
प्यारी ने मेरे मन के भाव को लक्ष्य करके मुसकरा दिया। कहा, “नहीं, इसमें कुछ दोष नहीं है, परन्तु क्या तुम विश्वास कर सकोगे?”
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