उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“कह देखो न।”
प्यारी ने कहा, “तुम्हें पहिचाना था महाराज, दुर्बुद्धि की मार से- और किस तरह? तुमने मेरी आँखों से जितना पानी बहवाया है, सौभाग्य से सूर्यदेव ने उसे सुखा दिया है। नहीं तो आँखों के उस जल से एक तालाब भर गया होता। पूछती हूँ, क्या इस पर विश्वास कर सकते हो?”
सचमुच ही मैं विश्वास न कर सका। परन्तु वह मेरी भूल थी। उस समय यह किसी तरह खयाल भी न आया कि प्यारी के होठों की गठन कुछ इस किस्म की है कि मानो हर बात वह मजाक में ही कहती है और मन ही मन हँसती हैं। मैं चुप रह गया। वह भी कुछ देर तक चुप रहकर इस बार सचमुच ही हँस पड़ी। परन्तु, इतनी देर में न जाने किस तरह मुझे जान पड़ा कि उसने अपनी लज्जित अवस्था को मानो सँभाल लिया है। हँसकर कहा, “नहीं महाराज, तुम्हें जितना भोला समझा था उतने भोले तुम नहीं हो। यह जो मेरा कहने का ढंग है, इसे तुमने बराबर समझ लिया है। किन्तु, यह भी कहती हूँ कि तुम्हारी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान भी इस बात पर अविश्वास नहीं कर सकते। सो यदि आप इतने अधिक बुद्धिमान हैं तो यह मुसाहबी का व्यवसाय आपने किसलिए ग्रहण किया है? यह नौकरी तो तुम्हारे जैसे आदमी से होने की नहीं। जाओ, यहाँ से चटपट खिसक जाओ!”
क्रोध के मारे मेरा सर्वांग जल उठा, किन्तु मैंने उसे प्रकट नहीं होने दिया। सहज भाव से कहा, “नौकरी जितने दिन हो, उतने ही दिन अच्छी। बैठे से बेगार भली - समझीं न! अच्छा, अब मैं जाता हूँ। बाहर के लोग शायद और ही कुछ समझ बैठें।”
प्यारी बोली, “समझ बैठें, तो यह तुम्हारे लिए सौभाग्य की बात है महाराज, यह क्या कोई अफसोस की बात है?”
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