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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


उत्तर दिये बिना ही जब मैं द्वारपर आ खड़ा हुआ तब वह अकस्मात् हँसी की फुहार छोड़कर कह उठी, “किन्तु देखो बाबू, मेरी वह आँखों के आँसुओं की बात मत भूल जाना। दोस्तों में, कुमार साहब के दरबार में, प्रकट कर दोगे तो सम्भव है तुम्हारी तकदीर खुल जाय।”

मैं उत्तर दिये बिना ही बाहर हो गया, परन्तु उस निर्लज्जा की वह हँसी और यह कदर्य परिहास मेरे सर्वांग में व्याप्त होकर बिच्छू के काँटे की तरह जलने लगा।

अपने स्थान पर आकर, एक प्याला चाय पीकर और चुरुट मुँह में दबाकर अपने को भरसक ठण्डा करके मैं सोचने लगा - यह कौन है? मैं अपनी पाँच-छ: वर्ष की उम्र तक की सब घटनाएँ स्पष्ट तौर से याद कर सकता हूँ। किन्तु अतीत में जितनी भी दूर तक दृष्टि जा सकती थी, उतनी दूर तक मैंने खूब छान-बीन कर देखा, कहीं भी इस प्यारी को नहीं खोज पाया। फिर भी, यह मुझे खूब पहचानती है। बुआ तक की बात जानती है। मैं दरिद्र हूँ, सो भी इससे अज्ञात नहीं है। इसीलिए, और तो कोई गहरी चाल इसमें हो नहीं सकती; फिर भी, जिस तरह हो, मुझे यहाँ से भगा देना चाहती है। परन्तु यह किसलिए? मेरे यहाँ रहने न रहने से इसे क्या? बातों ही बातों में उस समय इसने कहा था - संसार में लाभ-हानि ही क्या सब कुछ है? प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं है? मैंने जिसे पहले कभी आँख से भी नहीं देखा, उसके मुँह की यह बात याद करके भी मुझे हँसी आ गयी। किन्तु सारी बातचीत को दबाकर, उसका आखिरी व्यंग्य ही मानो मुझे लगातार छेदने लगा।

संध्या के समय शिकारियों का दल लौट आया। नौकरों के मुँह से सुना कि आठ पक्षी मारकर लाय गये हैं। कुमार ने मुझे बुला भेजा। तबीयत ठीक न होने का बहाना करके बिस्तरों पर ही मैं पड़ रहा; और इसी तरह पड़े-पड़े रात को देर तक प्यारी का गाना और शराबियों की वाह-वाह सुनता रहा।

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