उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इसके बाद तीन-चार दिन प्राय: एक ही तरह से कट गये। 'प्राय:' कहता हूँ, क्योंकि, सिर्फ शिकार को छोड़कर और सब बातें रोज एक-सी ही होती थीं। प्यारी का अभिशाप मानो फल गया हो - प्राणी-हत्या के प्रति किसी में कुछ भी उत्साह मैंने नहीं देखा। मानो कोई तम्बू के बाहर भी न निकलना चाहता हो। फिर भी मुझे उन्होंने नहीं छोड़ा। मेरे वहाँ से भाग जाने के लिए कोई विशेष कारण हो, सो बात न थी; किन्तु इस बाईजी के प्रति मुझे मानो घोर अरुचि हो गयी। वह जब हाजिर होती, तब मानो मुझे कोई मार रहा हो ऐसा लगता - उठकर वहाँ से जब चला जाता तभी कुछ शान्ति मिलती। उठ न सकता, तो फिर और किसी ओर मुँह फिराकर, किसी के भी साथ, बातचीत करते हुए अन्यमनस्क होने की चेष्टा किया करता। इस पर भी वह हर समय मुझसे आँखें मिलाने की हजार तरह से चेष्टा किया करती, यह भी मैं अच्छी तरह अनुभव करता। शुरू में दो-तीन दिन उसने मुझे लक्ष्य करके परिहास करने की चेष्टा भी की; किन्तु, फिर मेरे भाव को देखकर वह बिल्कुल सन्न हो रही।
शनिवार का दिन था। अब किसी तरह भी मैं ठहर नहीं सकता। खा-पी चुकने के बाद ही आज रवाना हो जाऊँगा, यह स्थिर हो जाने से आज सुबह से ही गाने-बजाने की बैठक जम गयी थी। थककर बाईजी ने गाना बन्द किया ही था कि हठात् सारी कहानियों से श्रेष्ठ भूतों की कहानी शुरू हो गयी। पल-भर में जो जहाँ था उसने वहीं से आग्रह के साथ वक्ता को घेर लिया।
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