उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पहले तो मैं लापरवाही से सुनता रहा। परन्तु अन्त में उद्विग्न होकर बैठ गया। वक्ता थे गाँव के ही एक वृद्ध हिन्दुस्तानी महाशय। कहानी कैसे कहनी चाहिए सो वे जानते थे। वे कह रहे थे कि “प्रेत-योनि के विषय में यदि किसी को सन्देह हो-तो वह आज, इस शनिवार की अमावस्या तिथि को, इस गाँव में आकर, अपने चक्षु-कर्णों का विवाद भंजन कर डाले। वह चाहे जिस जाति का, चाहे जैसा, आदमी हो और चाहे जितने आदमियों को साथ लेकर जाए, आज की रात उसका महाश्मशान को जाना निष्फल नहीं होगा। आज की घोर रात्रि में उग्र श्मशानचारी प्रेतात्मा को सिर्फ आँख से ही देखा जा सकता हो सो बात नहीं - उसका कण्ठस्वर भी सुना जा सकता है और इच्छा करने पर उससे बातचीत भी की जा सकती है।” मैंने अपने बचपन की बातें याद करके हँस दिया। वृद्ध महाशय उसे लक्ष्य करके बोले, “आप मेरे पास आइए।” मैं उनके निकट खिसक गया। उन्होंने पूछा, “आप विश्वास नहीं करते?”
“नहीं।”
“क्यों नहीं करते? नहीं करने का क्या कोई विशेष हेतु है?”
“नहीं।”
“तो फिर? इस गाँव में ही दो-एक ऐसे सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अपनी आँखों देखा है। फिर भी जो आप विश्वास नहीं करते, मुँह पर हँसते हैं सो यह केवल दो पन्ने अंगरेजी पढ़ने का फल है। बंगाली लोग तो विशेष करके नास्तिक म्लेच्छ हो गये हैं।” कहाँ की बात कहाँ आ पड़ी, देखकर मैं अवाक् हो गया। बोला, “देखिए, इस सम्बन्ध में मैं तर्क नहीं करना चाहता। मेरा विश्वास मेरे पास है। मैं भले ही नास्तिक होऊँ, म्लेच्छ होऊँ- पर भूत नहीं मानता। जो कहते हैं कि हमने आँखों से देखा है वे या तो ठगे गये हैं, अथवा झूठे हैं, यही मेरी धारणा है।”
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