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वीर बालिकाएँ

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :70
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9732

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साहसी बालिकाओँ की प्रेरणात्मक कथाएँ

चम्पाने कहा- 'पिताजी! आप चिन्ता न करें! हमारे यहाँ से अतिथि भूखा नहीं जायगा। आपने मुझे कल जो दो रोटियाँ दी थीं, वे मैंने बचा रखी हैं। मुझे भूख नहीं है। मैंने रखी तो छोटे भाई के लिये थी, पर वह सो गया है। आप उस अतिथि को दे दीजिये।'

पत्थर के नीचे दबाकर रखी घास की दो रोटियाँ पत्थर हटाकर चम्पा ले आयी। थोड़ी-सी चटनी के साथ वे रोटियाँ अतिथि को दे दी गयीं। अतिथि रोटियाँ खाकर चला गया। लेकिन महाराणा से अपने बच्चों का कष्ट नहीं देखा गया। उस दिन उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिये पत्र लिख दिया।

ग्यारह वर्ष की सुकुमार बालिका चम्पा दो-चार दिन पर तो खाने को घास की रोटी पाती थी और उसे भी बचाकर रख दिया करती थी। अपने भाग की रोटी वह अपने छोटे भाई को थोड़ी-थोड़ी करके खिला देती थी। लेकिन इस प्रकार भूख के मारे वह सूख गयी थी। उस दिन अतिथि को रोटियाँ देने के बाद मूर्च्छित ही हो गयी। महाराणा प्रताप ने उसे गोद में उठाकर रोते-रोते कहा- 'मेरी बेटी! अब मैं तुझे और दुःख नहीं दूँगा। मैंने अकबर को पत्र लिख दिया है।'

चम्पा मूर्च्छा में से चौंक पड़ी। वह कहने लगी- 'पिताजी! आप यह क्या कहते हैं? हमें मरने से बचाने के लिये आप अकबर के दास बनेंगे? पिताजी! हम सब क्या कभी मरेंगे नहीं? पिताजी! देश को नीचा मत दिखाइये! देश और जाति की गौरव-रक्षा के लिये लाखों लोगों का मर जाना भी उत्तम ही है। पिताजी! आपको मेरी शपथ है, आप अकबर की अधीनता कभी न मानें?'

बेचारी चम्पा बोलते-बोलते महाराणा की गोद में ही सदा को चुप हो गयी। लोग कहते हैं कि अकबर के दरबार में महाराणा का पत्र देखकर पृथ्वीराजजी ने महाराणा को पत्र लिखा और उसे पढ़कर फिर महाराणा ने अकबर के अधीन होने का विचार छोड़ दिया। लेकिन सच बात तो यह है कि बालिका चम्पा ने अपने बलिदान से ही महाराणा का विचार बदल दिया था और हिंन्दूकुल के गौरव की रक्षा कर ली थी।

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