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कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


अहल्या महर्षि गौतम की पत्नी हैं। पर उनके पति के शाप के कारण उन्हें पत्थर बन जाना पड़ा। यह प्रश्न स्वाभाविक रूप में मन में उठता है कि ऐसा क्या अपराध हो गया जिससे एक ऋषि पत्नी को प्रस्तर बन जाना पड़ा? इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि चाहे कितना भी उच्चकोटि का धर्मात्मा क्यों न हो, उससे भी जाने-अनजाने कोई न कोई भूल हो ही जाती है। अहल्याजी ने महर्षि गौतम की जीवन भर सब कुछ त्याग कर सेवा की पर एक दिन जब गौतम ऋषि प्रातःकाल की स्नान-वेला के भ्रम में असमय ही स्नानार्थ नदी की ओर चले गये, तो इसी बीच इन्द्र गौतम का छद्म रूप बनाकर अहल्या के पास आ गया। अहल्या ने उसे गौतम समझकर उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस प्रकार इन्द्र ने छलपूर्वक, अहल्या को पा लिया। उसी समय गौतमजी भी नदी से लौटकर वापस आ गये और क्रोध में आकर उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया, साथ ही यह कहते हुए कि तुममें भी कोई कमी अवश्य रही होगी, अन्यथा तुम बेष बदले रहने पर भी इन्द्र को पहचान सकती थी, तुम्हारी दृष्टि यदि पवित्र होती तो यह सब संभव नहीं था, उन्होंने अहल्या को भी पत्थर बन जाने का शाप दे दिया। यही है कठोर न्याय! गौतम ऋषि अहल्याजी के द्वारा की गयी अपनी सारी सेवा भूल गये और अनजाने में एक क्षण के लिये होने वाली भूल से इतने अधिक रुष्ट हो गये कि उन्हें मानवी से पाषाणी बना डाला। उनकी दृष्टि में यही न्याय था। आपने न्याय-व्यवस्था के उस प्रतीकात्मक चित्र को अवश्य देखा होगा कि जिसमें एक (न्याय की) तुला होती है और उसे हाथ उठानेवाली मानव-आकृति की आँखों पर एक पट्टी बँधी होती है। महर्षि गौतम ने भी इसी दृष्टि से अहल्या को न्याय की तुला पर तौलकर दण्ड दे दिया। अहल्या ने शाप स्वीकार कर लिया और महर्षि से मुक्ति का उपाय पूछा। मुनि यद्यपि न्याय में कठोर थे पर उनमें विशेषताएँ भी थीं। उन्होंने कहा कि तुमने अपराध जानबूझकर किया है या अनजाने में किया है, मैं तो न्याय करते हुए दण्ड ही दे सकता हूँ, क्योंकि अग्नि का स्पर्श जाने-अनजाने जैसे भी किया जाय, वह तो जलायेगी ही। पर जिनमें कृपा करने की सामर्थ्य है, ऐसे भगवान् राम बाद में यहाँ आयेंगे और जब उनके चरणों का स्पर्श तुम्हें मिलेगा, तो उसी समय तुम्हारी जड़ता चेतनता में बदल जायेगी और तुम पुन: अपना स्वरूप प्राप्त कर लोगी। इस प्रकार कठोर दण्ड व्यवस्था ने अहल्या को कठोर पत्थर बना दिया, पर अंत में प्रभु कृपा से वह धन्य हो गयी। विश्वामित्रजी के साथ जाते हुए मार्ग में प्रभु की दृष्टि चली गयी एक आश्रम की ओर! प्रभु ने देखा कि उस आश्रम में मनुष्य की बात क्या पशु, पक्षी तक नहीं हैं। वहाँ तो बस, नारी-आकृति की एक शिला ही पड़ी हुई है-

आश्रम एक दीख मग माहीं।
खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।। 1/209/11

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