धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
भगवान् राम ने विश्वामित्रजी से पूछा- गुरुदेव! यह कौन हैं?
संत विश्वामित्र परम उदार हैं। वे कह सकते थे कि यह तो पापिनी है, पातिव्रत धर्म से च्युत है, परित्यक्ता है। पर उन्होंने अहल्या की कथा इस रूप में न कहकर बड़े सुंदर और विशेष ढंग से कही-
वे कहते हैं कि-
अहल्या ने भूल की हो या न की हो पर उसे शाप मिला, जिससे उसे पत्थर की देह मिल गयी। संत की विशेषता देखिये कि उन्होंने उस परित्यक्ता, शापिता पाषाणी में भी गुण निकाल दिया।
याद रखिये! साधना के लिये उत्साह चाहिये और कृपा के लिये धैर्य चाहिये। इसलिए जो उतावले हो जाते हैं, उन्हें कृपा की बात नहीं सोचनी चाहिये। यदि आप किसी अपने मित्र से मिलने को उतावले हों, तो समर्थ होने की स्थिति में आप अपने उस मित्र से मिलने के लिये स्वयं निकल सकते हैं। पर यदि आप चलने में असमर्थ हैं, चलकर जा नहीं सकते, तो ऐसी स्थिति में आपको धैर्य का आश्रय लेकर उनकी प्रतीक्षा करनी होगी और जब वे ही कृपा करके पधारेंगे तभी भेंट हो पायेगी। इस तरह असमर्थता में धैर्य का बड़ा महत्त्व है।
गोस्वामीजी का इस संदर्भ में - एक बहुत भावपूर्ण पद विनयपत्रिका मंै प्राप्त होता है। गोस्वामीजी प्रभु से मिलना चाहते हैं पर उन्हें अपनी असमर्थता का भी ज्ञान था, इसलिए वे एक चौराहे पर बैठ गये। किसी ने उनसे पूछ दिया- तुम चौराहे पर क्यों बैठ गये भाई? उन्होंने कहा - मैं मार्ग देख रहा हूँ किसका मार्ग देख रहे हो? गोस्वामीजी अपनी असमर्थता बताते हुए कहते हैं कि मेरे पावों में न तो चलने की शक्ति है और न ही मैं यह जानता हूँ कि प्रभु किस मार्ग से चलने पर प्राप्त होते हैं। सुनता हूँ कि वे अलग-अलग लोगों को अलग-अलग रास्तों पर मिले हैं। इसलिए मैं यह सोचकर इस चौराहे पर बैठ गया हूँ कि वे जिधर से भी आयेंगे, यहाँ पर तो मिल ही जायेंगे। वे प्रभु से यही कहते हैं-
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