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कहानी संग्रह >> कुमुदिनी

कुमुदिनी

नवल पाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

घर के दरवाजे की दहलीज पर खड़े हजारी प्रसाद के दिमाग में बार-बार हुण्डी वाली पहली दो बातें आ रही थी-मां तो वास्तव में ममता की ही मूर्ति होती है पुत्र चाहे जैसा भी हो उसके लिए वही प्रिय होता है। दूसरी बात पिता के पास चाहे जितना भी धन हो कम है। वह एक दमड़ी तक फिजूल खर्च नहीं कर सकता। जान चली जाए पर दमड़ी न जाए। इसको अपने बेटे से प्यारा अपना रुपया होता है।

यह सोचकर उसने घर छोड़ने का निश्चय कर लिया। वह अपने माता-पिता से बोला- मां और पिताजी मैं अब इस घर में ही नहीं रहूंगा। मैं जा रहा हूं। और कभी इस घर में नहीं आऊंगा।

यह सुनकर उसकी मां का कलेजा मुंह को आया। उसकी मां बोली-बेटा इस घर को छोड़कर मत जा। मगर उसका पिता बार-बार यही कह रहा था- जा निकल जा मेरी आँखों के आगे से दूर हो जा। जा अभी निकल जा और कभी मत आ जाना।

यह सुनकर हजारी प्रसाद घर छोड़कर चल पड़ा। अब उसके दिमाग में तीसरी बात आई। वो थी होत की बहन वाली। वह अपनी बहन के घर जाने की सोचने लगा। वह अपनी बहन की ससुराल चला गया। गांव में पहुंच कर वह गांव से बाहर एक कुएं पर जा बैठा। गांव की पनिहारियों ने उससे पूछा तो उसने बताया कि-मैं राधा का भाई हूं। मेरा घर वालों से झगड़ा हो गया है।

पनिहारियों ने घर जाकर राधा से बताया तो वो पांच-छः बासी रोटी और दो प्याज लेकर अपने भाई से मिलने आई। अपने भाई का हालचाल पूछा और कहने लगी - भाई ये खाना लेकर आई थी। इसे खा लेना। तेरे जीजाजी गुस्सा करेंगे। इसलिए मैं तो चलती हूं। यह कह कर राधा वहां से अपने घर चली गई।

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