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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


67. कोई भी पति पत्नी को केवल पत्नी के नाते नहीं प्रेम करता, न कोई भी पत्नी पति को केवल पति के नाते प्रेम करती है। पत्नी में जो परमात्मतत्त्व है, उसी से पति प्रेम करता है, पति में जो परमेश्वर है, उसी से पत्नी प्रेम करती है। प्रत्येक में जो ईश्वरतत्त्व है, वही हमें अपने प्रिय के निकट खींचता है। प्रत्येक वस्तु में और प्रत्येक व्यक्ति में जो परमेश्वर है, वही हमसे प्रेम कराता है। परमेश्वर ही सच्चा प्रेम है।

68. ओह, यदि तुम अपने आपको जान पाते! तुम आत्मा हो, तुम ईश्वर हो। यदि मैं कभी ईशनिन्दा करता- सा अनुभव करता हूँ तो तब, जब मैं तुम्हें मनुष्य कहता हूँ।

69. हर एक में परमात्मा है, बाकी सब तो सपना है, छलना है।

70. यदि आत्मा के जीवन में मुझे आनन्द नहीं मिलता, तो क्या मैं इन्द्रियों के जीवन में आनन्द पाऊँगा? यदि मुझे अमृत नहीं मिलता, तो क्या मैं गड्डे के पानी से प्यास बुझाऊँ? चातक सिर्फ बादलों से ही पानी पीता है और ऊँचा उड़ता हुआ चिल्लाता है, 'शुद्ध पानी! शुद्ध पानी!' और कोई आँधी या तूफान उसके पंखों को डिगा नहीं पाते और न उसे धरती के पानी को पीने के लिए बाध्य कर पाते हैं।

71. कोई भी मत, जो तुम्हें ईश्वर-प्राप्ति में सहायता देता है, अच्छा है। धर्म ईश्वर की प्राप्ति है।

72. नास्तिक उदार हो सकता है पर धार्मिक नहीं। परन्तु धार्मिक मनुष्य को उदार होना ही चाहिए।

73. दाम्भिक गुरुवाद की चट्टान पर हर एक की नाव डूबती है; केवल वे आत्माएँ ही बचती हैं जो स्वयं गुरु बनने के लिए जन्म लेती हैं।

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